सुत, सौभाग्य और सम्पत्ति के लिए करें कोकिला व्रत, जानें माहात्म्य, व्रत विधि एवं कथा

आषाढ़ पूर्णिमा से प्रारम्भ करके श्रावण पूर्णिमा तक कोकिला व्रत किया जाता है। जैसे सावन पर्यन्त भगवान शंकर की पूजा अर्चना की जाती है वैसे ही कोकिला व्रत भी पूरे सावन भर किया जाता है। यह व्रत दक्षिण भारत में अधिक प्रचलित है जिसमें आदिशक्ति के कोयल स्वरूप की पूजा की जाती है। यह व्रत कुँवारी कन्याओं और विवाहित स्त्रियों दोनों के द्वारा किया जाता है। मान्यता है कि इस व्रत को करने से इच्छित वर की प्राप्ति होती है और शादी में आ रही बाधा दूर होती है तथा पति को लम्बी आयु मिलती है। आइए जानते हैं क्या है इस व्रत का माहात्म्य, विधि एवं कथा।

कोकिला व्रत माहात्म्य
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह व्रत देवी सती तथा भगवान शंकर की प्रसन्नता के लिए किया जाता है। माना जाता है कि इस व्रत को करने से स्त्रियों को सात जन्मों तक सुत, सौभाग्य और सम्पत्ति मिलती है। कोकिला व्रत के प्रभाव से स्त्री इस जन्म में प्रेम करने वाले पति के साथ सुख, सौभाग्य भोगकर अंत में भगवती गौरी के धाम को प्राप्त करती है। अखंड सौभाग्य, पति की लम्बी आयु और योग्य वर की प्राप्ति के लिए यह व्रत बहुत ही उत्तम माना गया है।

कोकिला व्रत विधि
आषाढ़ पूर्णिमा को सायंकाल स्नान करके विधि-विधान से कोकिला व्रत करने का मानसिक संकल्प लें। अगले दिन श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को “मम धनधान्यादिसहितसौभाग्यप्राप्तये शिवतुष्टये च कोकिलाव्रतमहं करिष्ये” मंत्र से संकल्प करके शुरू के आठ दिन पिसे हुए आंवले में तिल का तेल मिलाकर उसे मलकर स्नान करें। फिर अगले आठ दिनों तक दशौषधि के जल से स्नान करें और उसके अगले आठ दिनों तक पिसी हुई बच के जल से स्नान करें। अंत के छह दिनों में पिसे हुए तिल, आंवले और सर्वौषधि के जल से स्नान करें। इस क्रम से प्रतिदिन स्नान करके मिट्टी से निर्मित कोयल का पूजन करें। गंध, पुष्प, धूप, दीप और तिल आदि का भोग लगाएं और अपने मनोरथ की पूर्ति के लिए प्रार्थना करें। इस प्रकार श्रावण पूर्णिमा तक करने के बाद समाप्ति के दिन मिट्टी से बनी कोकिल प्रतिमा को सुवर्णमय पंख और आँख लगाकर वस्त्र, आभूषण आदि से सुसज्जित कर पुरोहित, गुरु या अपने पूज्य को भेंट करें। याद रखें की व्रत के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य है।

कोकिला व्रत कथा
कोकिला व्रत की कथा के अनुसार जब आदिशक्ति ने सती रूप में जन्म लिया था तब उन्होंने अपने पिता द्वारा पति भगवान शिव का अनादर सहन नहीं कर सकीं और पिता की यज्ञ वेदी में अपनी आहुति देकर उनके यज्ञ को भंग कर दिया। इससे कुपित भगवान शिव ने श्वसुर दक्ष को तो सजा दी ही पर माता सती को भी उनकी इच्छा के विरुद्ध जाकर प्राण आहूत करने के कारण 10 हजार साल तक कोयल बनकर वन में भटकने का शाप दे दिया। शाप की वजह से माता सती ने कोयल बनकर 10 हजार साल तक वन में भगवान शिव की आराधना की जिसके बाद उनका जन्म पर्वतराज हिमालय के घर में माता पार्वती के रूप में हुआ।

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