लंबे और सुखी वैवाहिक जीवन के लिए करें अशून्यशयन व्रत, जानें इसका माहात्म्य और विधि

किसी विशेष तिथि या कालविशेष पर पुण्य प्राप्ति के लिए नियम पालन करना व्रत कहलाता है। व्रत एक प्रकार का तप है जिसके विधिपूर्वक करने से विशिष्ट ऊर्जा का प्रादुर्भाव होता है जिसे पुण्य कहते हैं। भारतीय संस्कृत में कई प्रकार के व्रतों का वर्णन किया गया है। किस मास की किस तिथि पर किस कार्य की सिद्धि के लिए कौनसा व्रत करें, इसका पुराणों में विस्तार से वर्णन है। आज हम आपके लिए लंबे और सुखी वैवाहिक जीवन के लिए किये जाने वाले अशून्यशयन व्रत के बारे में जानकारी लेकर आये हैं। आइये आगे जानें यह व्रत कब और कैसे किया जाता है तथा इसका क्या माहात्म्य है।

अशून्यशयन व्रत का माहात्म्य
अशून्यशयन का अर्थ है स्त्री का शयन पति से शून्य तथा पति का शयन स्त्री से शून्य नहीं होता। दोनों का ही यावज्जीवन साहचर्य बना रहता है। भविष्यपुराण के अनुसार इस व्रत को करने से स्त्री वैधव्य और पुरुष विधुर होने से मुक्त हो जाता है। विधि-विधान से जो व्यक्ति यह व्रत करता है उसे कभी स्त्री वियोग प्राप्त नहीं होता और लक्ष्मी उसका साथ नहीं छोड़तीं। जो स्त्री भक्तिपूर्वक इस व्रत का अनुष्ठान करती है वह तीन जन्मों तक न तो विधवा होती है और ना ही किसी दुर्भाग्य का सामना करती है। यह अशून्यशयन व्रत समस्त कामनाओं और उत्तम भोगों को प्रदान करने वाला है।

अशून्यशयन व्रत कब करें
अशून्यशयन व्रत का विधान स्त्री और पुरुष दोनों के लिए किया है। यह व्रत गुरुपूर्णिमा के अनन्तर श्रावण कृष्ण पक्ष द्वितीया तिथि से शुरू कर अगले चार मासों की प्रत्येक कृष्ण द्वितीया को किया जाता है। वर्ष 2022 में यह व्रत शुक्रवार, 15 जुलाई 2022 से आरंभ हो रहा है।

अशून्यशयन व्रत की विधि
भगवान विष्णु के साथ माँ लक्ष्मी का नित्य-निरंतर साहचर्य रहता है। इसलिए पति-पत्नी के नित्य साहचर्य के लिए दोनों को अशून्यशयन व्रत में श्रावण कृष्ण द्वितीया को लक्ष्मी सहित भगवान विष्णु की मूर्ति को विशिष्ट शैय्या पर विराजित कर षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। दिनभर मौन रहे और सायंकाल पुनः स्नानादि के उपरांत भगवान का शयनोत्सव मनाये। फिर चंद्रोदय होने पर अर्घ्यपात्र में जल, फल, पुष्प और गन्धाक्षत रखकर आगे दिए मन्त्र से अर्घ्य दे:
गगनांगणसंदीप क्षीराब्धिमथनोद्भव। भाभासितदिगाभोग रमानुज नमोऽस्तु ते।।
अंत में भगवान को प्रणाम करके भोजन करें। इसी तरह प्रत्येक मास की कृष्ण द्वितीया को व्रत करके मार्गशीर्ष कृष्ण तृतीया को मीठे ऋतुफल किसी सदाचारी ब्राह्मण को दक्षिणा सहित दें। करौंदा, नीबू आदि खट्टे तथा इमली, नारंगी आदि स्त्रीनाम वाले फल न दें।

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