Shankarachary Jayanti: वैदिक धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा के पुरोधा आद्य शंकराचार्य

वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना में भगवत्पाद् जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य का नाम सबसे ऊपर है। उनका प्रादुर्भाव वैदिक धर्म इतिहास में एक नवीन युग का सूचक है। आद्य शंकराचार्य निर्विवाद रूप से वेदांत दर्शन के सबसे महान आचार्य होने के साथ-साथ एक समाज सुधारक, कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और समन्वयकर्त्ता भी थे। जीव को ही ब्रह्म मानने वाले आचार्य शंकर ने ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ का नारा दिया। अपने अकाट्य तर्कों से उन्होंने शैव, शाक्त और वैष्णवों के बीच चली आ रही प्रतिद्वंद्विता को समाप्त कर पञ्चदेवोपासना का मार्ग दिखाया और राष्ट्रीय एकता एवं अखंड भारत की स्थापना में सांप्रदायिक सद्भाव को सुदृढ़ किया। आइये जानें वैदिक धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा के महान पुरोधा आद्य शंकराचार्य के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारे में।

आद्य शंकराचार्य का जीवन परिचय
पूज्यपाद आद्य शंकराचार्य का जन्म ईसा पूर्व 509 में शुभ ग्रह विशेषण युक्त वैशाख शुक्ल पंचमी को मध्याह्न के समय केरल के कालड़ी ग्राम में एक ब्राह्मण दंपति शिवगुरू तथा आर्यम्बा के यहाँ हुआ था। बालक का नाम शंकर रखा गया जो बचपन से ही बहुत मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। सिर्फ छह वर्ष की अवस्था में ही ये सारे वेद, पुराण और शास्त्रों में पारंगत हो गए और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने गुरू गोविन्द नाथ से संन्यास की दीक्षा ले ली। लौकिक कार्यों को संपन्न करने के पश्चात आचार्य शंकर ने मात्र 32 वर्ष की अवस्था में (ईसा पूर्व 477) वैशाख शुक्ल एकादशी के दिन अपने पार्थिव शरीर का त्याग किया।

आद्य शंकराचार्य द्वारा वैदिक धर्म का पुनर्प्रतिष्ठापन
भगवान शंकर के अवतार स्वरूप जगद्गुरू शंकराचार्य ने वैदिक धर्म की ज्योति को बुझने से बचाया। उनके जन्म के समय पूरे भारत वर्ष में वैदिक धर्म कई सम्प्रदायों और मतों में विभक्त होकर अधोपतन की ओर था। जैन एवं बौद्ध मतावलम्बियों को राज्याश्रय प्राप्त था। तब ऐसी विषम परिस्थितियों में आचार्य शंकर ने सारे देश की यात्रा की तथा अपने ज्ञान, कौशल और शास्त्रार्थ से देश और धर्म को एक सूत्र में पिरोकर वैदिक धर्म के सूर्य को दैदीप्यमान किया। आद्य शंकराचार्य ने अपने धर्मोद्धार संबंधी कार्यों को अक्षुण्ण रखने के लिए कांची कामकोटि पीठ के अलावा देश की चारों दिशाओं में चार पीठों की स्थापना की। पूर्व में जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन पीठ, उत्तर में बदरिकाश्रम में ज्योर्तिपीठ, पश्चिम में द्वारका में शारदा पीठ और दक्षिण में शृंगेरी पीठ। इन सभी पीठों में उन्होंने पीठाधीश्वर नियुक्त किये जिन्हे शंकराचार्य कहा गया। संन्यासियों की दस श्रेणियाँ बनाकर दशनामी संगठन खड़ा कर उनके लिए अखाड़ों और महामण्डलेश्वर की व्यवस्था बनाई। कुम्भ-मेलों और द्वादश ज्योतिर्लिंगों के व्यवस्थापन का सूत्र दिया। प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, उपनिषद् और श्रीमद्भगवद्गीता) पर भाष्य तथा अद्वैत वेदान्त के अनेक मौलिक ग्रंथों एवं स्तोत्रों की रचना की तथा अवैदिक मतांतरवाले विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित करके वैदिक धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा की। आद्य शंकराचार्य ने मात्र 32 वर्ष की आयु में वैदिक धर्म और भारतवर्ष के लिए जो किया वह अलौकिक लगता है जिसे लेखनी के माध्यम से बता पाना संभव नहीं।

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