यूँ तो माँ दुर्गा को प्रसन्न करने और उनकी कृपा प्राप्ति के लिए बहुत से मंत्र, श्लोक और स्तुतियाँ हैं परन्तु इनमें देवी अथर्वशीर्ष का विशेष महत्व है। अथर्ववेद में इसकी बहुत महिमा बताई गई है। अथर्ववेद के शिरोभाग में आने के कारण इस स्तोत्र को अथर्वशीर्ष कहा गया है। आइये आगे जानें इसका माहात्म्य और मंगलवार एवं अश्विनी नक्षत्र के शुभ संयोग का इसमें क्या है महत्व।
देवी अथर्वशीर्ष का माहात्म्य
इस स्तोत्र का जो कोई भी जातक पाठ करता है उसे पांचों अथर्वशीर्ष के पाठ का फल प्राप्त होता है “इदमथर्वशीर्षं योऽधीते स पञ्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति।” स्तोत्र पाठ से व्यक्ति को देवी की शीघ्र कृपा प्राप्त होती है, वह पाप मुक्त हो जाता है और महादेवी के प्रसाद से सभी संकटों से मुक्त हो जाता है। इसका विशेष विधान से जाप करने से वाकसिद्धि प्राप्त होती है, दैवीय सानिध्य प्राप्त होता है और महामृत्यु का भय नहीं रहता है।
देवी अथर्वशीर्ष और भौमाश्विन्यां योग
मंगलवार एवं अश्विनी नक्षत्र के योग में देवी अथर्वशीर्ष के जप का विशिष्ट महत्व है। ऐसे शुभ संयोग पर महादेवी के निकट इसका पाठ करने से व्यक्ती महामृत्यु से भी तर जाता है “भौमाश्विन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति।” महामृत्यु यानी जो मृत्यु सामान्य नही होती, असामान्य मृत्यु जैसे अकाल मृत्यु, महामारीजन्य मृत्यु, अत्यधिक मोह भी महामृत्यु ही है। अतः इन सभी महामृत्युओं से रक्षा के लिए देवी अथर्वशीर्ष का जाप भौमाश्विनी योग में जरूर करें। ध्यान दें यहाँ जप करने को कहा गया है। केवल एक बार पाठ से ही जप नही होता। विधि-विधान पूर्वक नियमों का पालन करते हुए कई बार पाठ करना ही जप है।